भारत : नियति और संघर्ष
तरुण विजय की यह पुस्तक नवोन्मेषी हिन्दू मूल्यों और भारत राष्ट्र की सम्यतामूलक धारा के विरुद्ध सक्रिय अभारतीय तत्वों के विरुद्ध हिन्दू आक्रोश को अभिव्यक्त करती है। बौद्धिक क्षात्र-तेज से युक्त यह पुस्तक पाठक के मन के ठहराव को बदलने में समर्थ है जो समसामयिक विसंगतियों की धारदार और ओजपूर्ण शैली में पड़ताल करती है।
एक हिन्दू-बहुल राष्ट्र के निवासी होने के बावजूद भारतीय हिन्दुओं को अपने अस्तित्व और निर्बाध विकास की लड़ाई में निरन्तर जूझते रहना पड़ता है। क्यों?उनके दुख-दर्द को जाचने के मानदण्ड क्या हैं?तेजी से वैश्वीकृत होती वर्तमान दुनिया में क्या काबुल, कन्धार,तक्षशिला और ढाका में अपने पूर्वजों की नियति की तरह आज वे भी विलुप्ति के कगार पर खड़े हैं?विभाजनों की त्रासदी झेलने के बाद बचा-खुचा भारत क्या अगली सहस्त्राब्दी तक अपने मूल स्वरूप में जीवित रह सकेगा?या फिर इतिहास का चक्का आगे बढ़ेगा,भारतीय जनमानस उठ खड़ा होगा और विश्व सम्यताओं की बिरादरी में अपना उचित स्थान हासिल करेगा?
यह पुस्तक पाठकों को वैचारिक रूप से उद्वेलित और आन्दोलित करेगी।